जब पैसा कागज़ बन गया: वे देशों की चौंकाने वाली कहानियाँ जहाँ मुद्रा इतनी बेकार हो गई कि लोग उसे किलो में बेचने लगे
दुनिया भर में पैसा मूल्य का प्रतीक माना जाता है। यह वही साधन है जिसके माध्यम से लोग भोजन खरीदते हैं, किराया भरते हैं, इलाज करवाते हैं, अपने बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाते हैं और जीवन को सुरक्षित बनाते हैं। लेकिन क्या हो अगर पैसा ही बेकार हो जाए? क्या हो अगर मुद्रा की कीमत इतनी गिर जाए कि लोग उसे गिनने के बजाय किलो में तौलने लगें? क्या हो अगर नोटों के ढेर, जिन्हें कभी लोग अपनी बचत मानते थे, अचानक केवल रद्दी कागज बनकर रह जाएँ? इतिहास में कई ऐसे क्षण आए हैं जब देश की आर्थिक व्यवस्था इतनी बुरी तरह टूटी कि उनकी मुद्रा पूरी तरह ढह गई। ऐसी स्थिति को ही हम हाइपरइन्फ्लेशन यानी अत्यधिक महंगाई कहते हैं। इसमें पैसों की कीमत इतनी तेजी से गिरती है कि सुबह की कीमत शाम तक बदल जाती है।
यह लेख उन देशों की गहराई से पड़ताल करता है जहाँ मुद्रा का मूल्य इतना गिरा कि लोग नोटों को सामान की तरह वजन में बेचने लगे। हम जानेंगे कि प्रत्येक देश में यह संकट क्यों आया, मुद्रा कैसे बेकार हुई और आम लोगों को किस तरह की भयानक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।
हाइपरइन्फ्लेशन क्या है और यह मुद्रा को कैसे नष्ट कर देता है?
हाइपरइन्फ्लेशन वह स्थिति है जिसमें कीमतें बहुत तेज़ गति से बढ़ने लगती हैं, इतनी तेजी से कि मुद्रा का वास्तविक मूल्य समाप्त होने लगता है। कभी-कभी कीमतें हर दिन नहीं, बल्कि हर घंटे बदलने लगती हैं। हाइपरइन्फ्लेशन के कई कारण होते हैं—जैसे सरकार द्वारा अत्यधिक मात्रा में मुद्रा छापना, उत्पादन में गिरावट, राजनीतिक अस्थिरता, युद्ध, प्रतिबंध, कर्ज़ में डूबना या आर्थिक भ्रष्टाचार। जब जनता अपनी मुद्रा पर विश्वास खो देती है, तभी असली गिरावट शुरू होती है। दुकानों में हर घंटे नई कीमतें लगती हैं। लोग अपनी तनख्वाह मिलते ही तुरंत दुकान भागते हैं, क्योंकि अगले ही दिन उनकी तनख्वाह आधी कीमत में बदल जाती है। बैंक भी गिनती छोड़कर नोटों को वजन में तौलकर पैसे देने लगते हैं।
अब हम एक-एक करके उन देशों की कहानी समझते हैं जहाँ पैसा बिल्कुल खत्म हो गया और लोगों ने उसे केवल कागज समझकर किलो में बेचना शुरू कर दिया।
ज़िम्बाब्वे (2000–2009): जब ट्रिलियन-डॉलर के नोट भी बेकार हो गए
ज़िम्बाब्वे की कहानी हाइपरइन्फ्लेशन के सबसे दर्दनाक उदाहरणों में से एक है। यह वह देश है जहाँ मुद्रास्फीति 89 सेक्सटिलियन प्रतिशत तक पहुँच गई—एक ऐसा आंकड़ा जिसे समझना लगभग असंभव है। यहाँ एक रोटी की कीमत एक दिन अरबों डॉलर होती थी और कुछ दिनों बाद ट्रिलियन में पहुँच जाती थी। कारण बहुत थे, लेकिन सबसे बड़ा कारण कृषि प्रणाली का ढह जाना था। सरकार द्वारा खेतों का जबरन अधिग्रहण किया गया, जिससे देश की खाद्य आपूर्ति बुरी तरह बिगड़ गई। निर्यात बंद हो गया और देश को भोजन के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ा। राजस्व घटा तो सरकार ने पैसा छापना शुरू किया, जिससे मुद्रा का मूल्य और गिरता गया।
आम लोगों का जीवन भयानक संकट में बदल गया। वेतन मिलते ही लोग सीधे बाज़ार की ओर भागते थे, क्योंकि दो घंटे बाद ही उसकी कीमत आधी हो जाती थी। बुजुर्ग लोग, जिन्होंने जीवन भर बचत की थी, देखते ही देखते कंगाल हो गए। दुकानें खाली रहने लगीं, दवाइयाँ गायब हो गईं और अस्पतालों में इलाज लगभग असंभव हो गया। कई जगह नोटों को किलो के हिसाब से बेचा जाता था, क्योंकि उनकी कीमत उनके कागज़ से भी कम हो गई थी। अंत में ज़िम्बाब्वे ने अपनी मुद्रा पूरी तरह छोड़ दी और डॉलर को अपनाया।
वेनेज़ुएला (2016–वर्तमान): आधुनिक समय की सबसे दर्दनाक आर्थिक त्रासदी
वेनेज़ुएला कभी लैटिन अमेरिका का सबसे अमीर देश था। लेकिन 2014 में तेल की कीमतें गिरते ही पूरा आर्थिक ढांचा टूट गया। यह देश तेल पर बहुत अधिक निर्भर था और जैसे ही इसकी आय घटी, सरकार ने घाटा पूरा करने के लिए पैसे छापने शुरू कर दिए। विदेशी कंपनियाँ देश छोड़ने लगीं, राजनीतिक तनाव बढ़ा और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों ने स्थिति को बदतर बना दिया। 2016 से शुरू हुई हाइपरइन्फ्लेशन 2018 में लाखों प्रतिशत तक पहुँच गई।
लोग रोज़ाना भूखे सोने लगे। एक महीने की तनख्वाह से एक किलो चिकन भी नहीं खरीदा जा सकता था। दवाइयाँ खत्म हो गईं, अस्पतालों में बिजली तक नहीं रहती थी। करोड़ों नागरिक देश छोड़कर दूसरे देशों में पैदल जाने लगे। पुराने बोलिवर नोट इतने बेकार हो गए कि लोग उन्हें थैलों में भरकर किलो में बेचने लगे या उनसे हस्तशिल्प की चीजें बनाने लगे। आज वेनेज़ुएला में कई बाजार अमेरिकी डॉलर पर चलते हैं और स्थानीय मुद्रा केवल नाम भर की रह गई है।
वाइमर जर्मनी (1921–1923): जब नोटों से दीवारें सजाई जाती थीं
पहले विश्व युद्ध के बाद जर्मनी पर भारी कर्ज़ और मुआवजे का बोझ पड़ा। सरकार के पास पैसा नहीं था, इसलिए उसने मुद्रा छापना शुरू कर दिया। जैसे-जैसे नोट बढ़ते गए, उनकी कीमत गिरती गई। अर्थव्यवस्था पूरी तरह अस्थिर हो गई और मुद्रा रोज़ाना नहीं बल्कि हर घंटे अपनी कीमत खोने लगी। दुकानों में कीमतें इतनी तेज़ बदलती थीं कि मेनू कार्ड बिना कीमतों के छापे जाते थे।
आम लोगों के लिए यह समय अत्यंत कठिन था। वेतन दिन में दो बार दिया जाता था, ताकि लोग जल्दी खरीदारी कर सकें। नोटों के ढेर लेकर लोग दुकान जाते थे और वापस खाली हाथ लौटते थे। कई परिवारों ने दीवारों पर वॉलपेपर की जगह नोट चिपकाना शुरू कर दिया, क्योंकि नोट सस्ते पड़ते थे। बच्चे नोटों का घरौंदा बनाते थे और बैंक कर्मचारी पैसे तौलकर देते थे, गणना करने का समय ही नहीं था। यह आर्थिक ध्वंस जर्मनी के समाज को इतना तोड़ गया कि बाद के वर्षों में राजनीतिक उथल-पुथल का मार्ग खुल गया।
हंगरी (1945–1946): दुनिया का सबसे खराब हाइपरइन्फ्लेशन
द्वितीय विश्व युद्ध ने हंगरी को गहरे आर्थिक संकट में डाल दिया था। देश का बड़ा हिस्सा नष्ट हो चुका था, उद्योग ठप थे और युद्ध के मुआवजों ने कमर तोड़ दी। सरकार ने खर्च पूरा करने के लिए मुद्रा छापना शुरू किया और देखते ही देखते मुद्रास्फीति दुनिया में सबसे तेज़ हो गई। कीमतें हर 15 घंटे में दोगुनी हो जाती थीं।
लोगों का जीवन अत्यंत कष्टदायक हो गया। मजदूरों को दिन में कई बार वेतन दिया जाता था। रोटी की कीमत सुबह कुछ थी, बिना वेतन मिले शाम तक कई गुना बढ़ जाती थी। लोग बड़े-बड़े बोरे भरकर नोट बाजार में ले जाते थे और दुकानदार उन बोरे को तौलकर कीमत तय करते थे। कई परिवार भूख से जूझ रहे थे और देश सामाजिक, आर्थिक व मानसिक दृष्टि से पूरी तरह टूट चुका था। अंततः नई मुद्रा ‘फ़ोरिंट’ लाई गई, तब जाकर स्थिति थोड़ी संभली।
यूगोस्लाविया (1990s): युद्ध, राजनीतिक टूटन और मुद्रा का अंत
यूगोस्लाविया के टूटने के साथ-साथ उसकी अर्थव्यवस्था भी बिखर गई। युद्ध, प्रतिबंध, महंगाई और उद्योगों का विनाश—इन सबका संयुक्त प्रभाव इतना जबरदस्त था कि मुद्रा की कीमत लगभग खत्म हो गई। सरकार युद्ध के खर्च पूरे करने के लिए लगातार पैसा छापती रही और मुद्रास्फीति करोड़ों प्रतिशत तक पहुँच गई।
आम लोगों का जीवन असहनीय बन चुका था। लोग भोजन के लिए पैसे के बजाय साबुन, दूध, सिगरेट और अनाज का आदान-प्रदान करते थे। दुकानदार स्थानीय मुद्रा लेने से इंकार कर देते और विदेशी मुद्रा या वस्तु मांगते। नोटों के बंडल इतने बेकार हो गए कि उन्हें रद्दी के दामों पर किलो में बेचा जाने लगा। लोग रोज़ाना भूख, गरीबी और अनिश्चितता से जूझते रहे।
सोवियत संघ (1991): एक साम्राज्य का आर्थिक पतन
सोवियत संघ का आर्थिक ढांचा पहले से ही कमजोर था। उद्योगों में उत्पादन घट रहा था, सरकारी खर्च तेज़ी से बढ़ रहा था और जनता असंतुष्ट थी। जब 1991 में USSR टूटने लगा, तब मुद्रा पर लोगों का विश्वास तेजी से गिरने लगा। पुराने रूबल नोट व्यावहारिक रूप से बेकार होते जा रहे थे, और कई क्षेत्रों में लोग इन्हें वजन में बेच रहे थे।
हर तरफ बेरोज़गारी बढ़ रही थी। बाजारों से सामान गायब हो गया था। सामान्य लोग घंटों लाइन में लगकर कुछ किलो चीनी या एक रोटी तक खरीदते थे। पेंशनरों को मिलने वाला पैसा इतना कम हो गया कि वे घर चलाने में असमर्थ हो गए। सोवियत संघ का विघटन आर्थिक ही नहीं, बल्कि मानवीय त्रासदी भी था।
जब मुद्रा इतनी सस्ती हो जाए कि उसे किलो में बेचना पड़े
जब पैसे की कीमत इतनी गिर जाती है कि वह कागज से भी सस्ता हो जाता है, तो लोग उसे गिनना छोड़कर सीधे वजन में तौलने लगते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लाखों नोटों की गिनती समय लेने वाली होती है। दुकानदारों और बैंक कर्मचारियों के लिए वजन सबसे आसान तरीका बन जाता है। कुछ देशों में तो नोट ईंधन की तरह जलाए जाते थे, क्योंकि वे लकड़ी से भी सस्ते थे। कुछ जगहों पर लोग उनसे टोकरियाँ, शोपीस और घरेलू वस्तुएँ बनाते थे।
इस पूरी त्रासदी से हम क्या सीख सकते हैं?
इन सभी देशों की कहानियाँ हमें एक गहरी सीख देती हैं—अर्थव्यवस्था की नींव विश्वास पर टिकी होती है। जब सरकार पैसे का दुरुपयोग करती है, उत्पादन कम होता है, राजनीति अस्थिर होती है और लोग भविष्य पर भरोसा खो देते हैं, तब मुद्रा का अंत निश्चित हो जाता है। मजबूत शासन, पारदर्शी नीतियाँ, उत्पादन में निवेश और आर्थिक विवेक किसी भी देश को ऐसे संकट से बचा सकते हैं।

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